भारत के कॉर्पोरेट सेक्टर की मुनाफाखोरी की कहानी अब ढहने लगी है। DSP Netra की ताज़ा रिपोर्ट में ये खुलासा हुआ है कि कंपनीज़ के Return on Equity (ROE) यानी शेयरधारकों पर लाभ की दर लगभग 15 प्रतिशत पर अटकी हुई है, जो कि 2000 के दशक के मिड पीरियड में मिलने वाले 20-25 प्रतिशत ROE से काफी कम है। हालांकि सेल्स ग्रोथ और प्रॉफिट मार्जिन्स ने कोविड के बाद अच्छी पकड़ बनाई, लेकिन ROE के मामले में हालात स्थिर नहीं लग रहे। रिपोर्ट का मुख्य कारण बताया गया है घटता हुआ Asset Turnover। 2003-07 के दौर में कंपनियां हर 100 रुपये की संपत्ति पर करीब 150 रुपये की बिक्री कर पाती थीं, जबकि आज यह आंकड़ा घटकर 120-130 रुपये के बीच आ गया है। NSE 500 कंपनियों (BFSI और IT को छोड़कर) के लंबे समय के आंकड़ों पर नजर डालें तो Asset Turnover मध्य 2000 के दशक में लगभग 1.5 गुना था, जो FY2015 के बाद 1.2 से नीचे गिर गया और FY2025 तक यह लगभग 1.1 गुना रह गया। यह गिरावट चक्रीय नहीं बल्कि संरचनात्मक बताई गई है। इसका कारण यह है कि कंपनियों ने अपने कर्ज कम कर दिए हैं, जिससे वित्तीय जोखिम कम हुआ है लेकिन वित्तीय leverage का इस्तेमाल कर बढ़ते हुए सेल्स को पकड़ने का रास्ता भी सीमित हो गया है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने भी कंपनियों के लिए अपनी मौजूदा क्षमताओं का पूरा उपयोग करना मुश्किल कर दिया है। परिणामस्वरूप, चाहे मार्जिन पीक पर हों और मुनाफा अच्छा बढ़ रहा हो, ROE 15 प्रतिशत की सीमा के ऊपर नहीं जा पा रहा
पिछले दशक में कंपनियों ने अपनी बैलेंस शीट को मजबूत करने के लिए Deleveraging किया है। इससे उनकी वित्तीय मजबूती बढ़ी है, लेकिन इक्विटी बेस भी बढ़ गया है, जिसका मतलब है कि अब लाभ उत्पन्न करने के लिए बड़ी इक्विटी को समर्थन देने की जरूरत है। DSP Mutual Fund की Product Manager Pragati Aggarwal ने बताया कि कर्ज कम होने के कारण कंपनियों के पास नकदी जमा हो गई है, जिससे वे बिना बैंक या बॉन्ड मार्केट से उधार लिए विस्तार कर सकती हैं। लेकिन इस ताकत का फायदा तभी होगा जब मांग (Demand Visibility) में सुधार होगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भले ही 15 प्रतिशत ROE ग्लोबल स्तर पर ठीक-ठाक माना जाता है, भारत के लिए यह औसत से कम है। पिछली आर्थिक तेजी के दौर में तेज़ GDP ग्रोथ और क्रेडिट विस्तार ने उच्च Asset Turns और मजबूत कमाई को संभव बनाया था। लेकिन FY25 में नाममात्र GDP ग्रोथ 10 प्रतिशत से नीचे आ गई और FY26 की पहली तिमाही में यह 9 प्रतिशत से भी कम हो गई है, जिससे कंपनियों की 20 प्रतिशत कमाई बढ़ाने की क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं, जो बाजार में प्राइसिंग में शामिल है। बाजार की लीडरशिप में भी बदलाव देखा गया है। पहले FMCG, IT, Oil & Gas (Reliance को छोड़कर) और Consumer Durables जैसे उच्च ROE वाले सेक्टर भारत के प्रीमियम वैल्युएशन को सपोर्ट करते थे। अब रिटेल मार्केट में रेटिंग में सुधार ज्यादातर Cyclicals जैसे कि Metals, Mining और Construction Materials से आ रहा है, जो आमतौर पर पूरे चक्र में स्थिर रिटर्न देने में असमर्थ होते हैं
इससे इन सेक्टर्स के मूल्यांकन अधिक असुरक्षित हो गए हैं यदि ग्रोथ की गति कमजोर पड़ती है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान ROE को लेकर कोई गारंटी नहीं है कि यह स्थिर रह पाएगा। कंपनियां एक बार फिर से लिवरेज का सहारा ले सकती हैं ताकि Asset Turns बढ़ाए जा सकें, लेकिन यह तभी संभव होगा जब मांग की स्पष्टता और मजबूती आएगी। अन्यथा, कॉर्पोरेट भारत की मुनाफाखोरी की कहानी कमजोर पड़ती जाएगी और निवेशकों के लिए जोखिम बढ़ेगा। इस पूरे परिदृश्य में यह स्पष्ट है कि कंपनियों के पास विस्तार के लिए नकदी तो मौजूद है, लेकिन बाजार में मांग का अनिश्चित होना उनकी वृद्धि को सीमित कर रहा है। वित्तीय प्रबंधन में सुधार के बावजूद, संरचनात्मक चुनौतियां अब भी कारोबार के लाभ को प्रभावित कर रही हैं। इसलिए, निवेशकों को सावधानी से स्थिति को समझना होगा क्योंकि ROE की यह 15 प्रतिशत की सीमा भारतीय कॉर्पोरेट सेक्टर की एक बड़ी कमजोरी के रूप में उभर रही है